नि:शुल्क शिक्षा: वरदान या चुनौती?(Nishulk shiksha vardan ya chunauti?)
आज हम शिक्षा प्राप्ति की बात करें तो सर्व प्रथम शिक्षा- प्राप्ति के संस्थान गुरुकुल हुआ करते थे। तब नि:शुल्क शिक्षा (Nishulk shiksha) का प्रचार प्रसार पूरे भारत में था।
गुरुकुलों से सभ्य समाज का निर्माण हो रहा था।
परन्तु मेकॉले ने यह जाना कि भारत के लोगों के मस्तिष्क पर चिरकाल तक स्थिर राज करने के लिए अपनी शिक्षण पद्धति को स्थापित करना होगा ।
मेकॉले के द्वारा ही शिक्षण संस्थानों से शिक्षण शुल्क की नींव रखी गई। जिससे उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करने पर जोर दिया परन्तु यह एक सोचने का विषय है कि उस समय हमारे देश की आर्थिक स्थिति कितनी मजबूत थी?
जब मैं इस बात को अपने पूर्वजों से पूछता हूँ कि आप जब विद्यालय जाते थे तो अपने शिक्षण शुल्क की अदायगी कैसे करते थे?
तब वह अपनी मार्मिक व्यथा सुनाते। बोलते कि हमें पहनने के लिए न कपड़े न जूते मिलते थे। हम फटे पुराने कपड़े पहनकर व नंगे पांव ही स्कूल जाते थे। शिक्षण शुल्क की अदायगी बड़ी मुश्किल से करते थे । मैं यह सोचने पर विवश हो गया कि हमारे पूर्वज कितने कष्ट सहकर शिक्षा ग्रहण करते थे परंतु जब आज के समय की तरफ देखता हूँ कि आजकल शिक्षा ग्रहण करने में कितनी सुगमता हो गई है।
कभी यह नहीं सोचा कि सरकार ने 6-14 साल तक बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा (Nishulk shiksha) अनिवार्य तो कर दी । इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे इस पर कभी सोचा नहीं।
हमारी प्राथमिक शिक्षा नि:शुल्क (Nishulk shiksha) तो गई परंतु उच्च शिक्षा अत्यधिक महंगी हो गई। यह एक चिंतनीय विषय है। हमारे पूर्वजों के पास कुछ न होने पर भी शिक्षण शुल्क अदा करते थे। आज क्या हम इतने कमजोर हो गए हैं कि शिक्षण शुल्क अदा नहीं कर सकते।
सरकार को इस विषय पर चिंतन करना चाहिए कि प्राथमिक स्तर पर कुछ शुल्क रखा जाए ताकि उच्च शिक्षा का शुल्क कम हो सके। जिससे हर बच्चा उच्च शिक्षण ग्रहण कर सके।
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