संस्कारों का पत्तन | Sanskaro Ka Patan
न बचा स्त्रियों के घूंघट की लाज,
न बचा पुरुषों के सिर का ताज।
न बची लज्जा, न बची शान,
यही तो थी स्त्रियों और पुरुषों की पहचान।
वो नज़रें अब आंखों में शरमाती नहीं
वो बातें अब दिल को छू जाती नहीं।
ना वो प्रेम रहा, ना आदर का भाव,
बदलते वक्त ने छीना सबका स्वभाव
संस्कारों की जोत थी बुझ गई कहीं,
आधुनिकता में सिमट गई हर जुबां यहीं।
अब रिश्ते भी समझौतों की भाषा बोलते हैं,
लोग चेहरे से नहीं, फायदे से रिश्ते तोलते हैं ।
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